ये सिर्फ कविता नहीं, ये मेरा लोगों के साथ का यथार्थ में अनुभव है। हमारे समाज का कटु सत्य है। अच्छे पढ़े लिखे लोगों में छुपि ये पुरानी सोच जिसके अन्याय के अस्तित्व से वो खुद भी अवगत नहीं हैं। ऐसी हस्तियों के यहाँ लड़कियों को नवरात्री पर पूजा तो जाता है मगर अपने घर में एक से ज़्यादा लड़की के पैदा होने पे मन ही मन में रोया जाता है।
आज भी ऐसे परिवार हैं जहाँ एक या ज़्यादा लड़को के पैदा होने पे अगर लड़की न भी हो तो भी परिवार को पूर्ण माना जाता है वहीँ एक से ज़्यादा लड़कियाँ हों और लड़का न हो तो परिवार को कमज़ोर और अधूरा माना जाता है। आज भी लड़के की इच्छा में लोग कई बार भ्रुण हत्या करते हैं। किसी ने मुझसे कहा था की "रूही, अब ज़माना बदल गया है। अब लड़कियों को बराबर का सम्मान है।" हाँ, सम्मान तो मिलता है कई परिवारों में और मैं भाग्यशाली हूँ ऐसे परिवार में जनम ले कर और पाकर। पर ये कहना की ज़माना पूर्ण रूप से बदल गया है , ये गलत है। ऐसा मैं इस लिए कह सकती हूँ क्यूंकि मेरे ही जान पहचान में, मेरे शहर में, जहाँ मैं खेल कूद के बड़ी हुई उन मोहल्लों में, मैंने ऐसे लोगों को जाना है जो एक के बाद एक बच्चा सिर्फ लड़के की उम्मीद में करते हैं। जिन्होंने सिर्फ लड़कियों के होने पे भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप के बारे में सोचा है। और जिन्होंने अपनी ही बेटियों को दूसरों को गोद दे दिया है। आज भी समाज में लोग दूसरी लड़की के होने पे गंभीर हो जाते हैं। लोगों की ये असमझता मुझे चौंका देती है। मैं इस सच से भर्रा जाती हूँ । कभी कभी रोती भी हूँ। क्यूंकि मैं दो बच्चियों की माँ हूँ। मैंने जाना है की कितना संपूर्ण है परिवार मेरा। कितना खुशहाल है आँगन मेरा। ज़िन्दगी से भरी है मेरी दोनों लाड़लियां। पराया धन नहीं , मेरी हैं मेरी बेटियां।
आज भी ऐसे परिवार हैं जहाँ एक या ज़्यादा लड़को के पैदा होने पे अगर लड़की न भी हो तो भी परिवार को पूर्ण माना जाता है वहीँ एक से ज़्यादा लड़कियाँ हों और लड़का न हो तो परिवार को कमज़ोर और अधूरा माना जाता है। आज भी लड़के की इच्छा में लोग कई बार भ्रुण हत्या करते हैं। किसी ने मुझसे कहा था की "रूही, अब ज़माना बदल गया है। अब लड़कियों को बराबर का सम्मान है।" हाँ, सम्मान तो मिलता है कई परिवारों में और मैं भाग्यशाली हूँ ऐसे परिवार में जनम ले कर और पाकर। पर ये कहना की ज़माना पूर्ण रूप से बदल गया है , ये गलत है। ऐसा मैं इस लिए कह सकती हूँ क्यूंकि मेरे ही जान पहचान में, मेरे शहर में, जहाँ मैं खेल कूद के बड़ी हुई उन मोहल्लों में, मैंने ऐसे लोगों को जाना है जो एक के बाद एक बच्चा सिर्फ लड़के की उम्मीद में करते हैं। जिन्होंने सिर्फ लड़कियों के होने पे भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप के बारे में सोचा है। और जिन्होंने अपनी ही बेटियों को दूसरों को गोद दे दिया है। आज भी समाज में लोग दूसरी लड़की के होने पे गंभीर हो जाते हैं। लोगों की ये असमझता मुझे चौंका देती है। मैं इस सच से भर्रा जाती हूँ । कभी कभी रोती भी हूँ। क्यूंकि मैं दो बच्चियों की माँ हूँ। मैंने जाना है की कितना संपूर्ण है परिवार मेरा। कितना खुशहाल है आँगन मेरा। ज़िन्दगी से भरी है मेरी दोनों लाड़लियां। पराया धन नहीं , मेरी हैं मेरी बेटियां।
वो जो मोहल्ले में ढूंढ रहे हैं ,
गलियों में जो खोज रहे हैं ,
दावतें सजाये जो बाहर तांक रहे हैं ,
उनको अपने घरों में चुप्पी बांधे देखा है।
वो जो पैर धो धो कर चूम रहे हैं ,
कपूर लौंग बाती की आरती उतार रहे हैं ,
जो तोहफ़ों की दुकान संभाल रहे हैं,
उनको अपनी को ही पराया धन मानते देखा है।
वो जो पांच, सात, नौ दुर्गे गिन रहे हैं ,
प्रेम और भक्ति से छोटी छोटी कन्याओं को तांक रहे हैं ,
उनको अपने घर में एक के बाद दूसरी के होने पे रोते देखा है।
उनको दूसरी के बाद तीसरे की उम्मीद बांधते देखा है।
उनको तीसरी को कोंख ही में मारते देखा है।
मत मानो देवी उसको
मत पूजो पैर उसके
नहीं चाहती वो तुम्हारी श्रद्धा
चाहती है वो तो बस इतना
दीप जलाओ तुम उसके पैदा होने पे
दिल से नाचो उसके पहले रोने पे
कुदरत की भूल से नहीं होती वो
होती है वो कुदरत संभालने को
देवी नहीं इंसान मानो उसे
पूजो नहीं प्यार से अपनाओ उसे।
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